Bihar Board Class 9th chapter 2 अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम | Ameriki swatantrata sangram class 9th History Notes & Solution
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Bihar Board Ncert Class 10th History Chapter 8 Notes प्रेस संस्कृति एवं राष्ट्रवाद | press sanskriti evam rashtravad Objective Question & Online Test

आज के इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 10वीं इतिहास का पाठ ‘प्रेस संस्कृति एवं राष्ट्रवाद’ का नोट्स को देखने वाले है। press sanskriti evam rashtravad

Bihar Board Ncert Class 10th History Chapter 8 Notes प्रेस संस्कृति एवं राष्ट्रवाद | press sanskriti evam rashtravad Objective Question & Online Test

प्रेस संस्कृति एवं राष्ट्रवाद

प्रश्न 1. प्रेस किसे कहते है?
उत्तर– वैसा माध्यम या संस्था जो समाचार, विचार, जानकारी और घटनाओं को जनता तक पहुँचाने का काम करता है, उसे प्रेस कहते है।

प्रश्न 2. संस्कृति किसे कहते है?
उत्तर– संस्कृति उस जीवन-शैली को कहते हैं जिसमें किसी समाज या समुदाय के परंपराएँ, रीति-रिवाज, धर्म, भाषा, पहनावा आदि शामिल होते हैं।

प्रश्न 3. मुद्रण किसे कहते है?
उत्तर– वैसी प्रक्रिया जिसमें अक्षरों, चित्रों, लेखों आदि को कागज़ या किसी अन्य वस्तु पर छापा जाता है, तो उसे मुद्रण कहते है।

☛ मुद्रण का अर्थ है — छापना या प्रिंट करना

☞ प्राचीन काल के लोग लिखना नहीं जानते थे, इसलिए वे अपने विचारों और भावनाओं को चित्रों के माध्यम से व्यक्त करते थे। भारत में इसके प्रमाण भीमबेटका (मध्य प्रदेश) की गुफाओं में मिले हैं।

⪼ अशोक के समय जब लोग पत्थरों, स्तंभों और गुफाओं पर लेख खुदवाते थे, तो उस समय दो प्रमुख लिपियाँ इस्तेमाल की जाती थीं।

(i) ब्राह्मी लिपि — यह लिपि भारत के ज़्यादातर हिस्सों में इस्तेमाल होती थी। बाद में इसी लिपि से देवनागरी और अन्य भारतीय लिपियाँ बनीं।

(ii) खरोष्ठी लिपि — यह लिपि उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रचलित थी। इसे दाएँ से बाएँ लिखा जाता था। वहाँ की खरोष्ठी लिपि पर अरामाइक लिपि का प्रभाव पड़ा था।

➣ छापाखानो का विकास तीन चरणों में हुआ —
(i) आरंभ से गुटेनबर्ग तक प्रिंटिंग प्रेस का विकास।
(ii) गुटेनबर्ग द्वारा प्रिंटिंग प्रेस का विकास।
(iii) गुटेनबर्ग के बाद का तकनीकी विकास।

आरंभ से गुटेनबर्ग तक प्रिंटिंग प्रेस का विकास

(i) 105 ई० में चीनी नागरिक टसप्लाइलून ने कपास और मलमल की पट्टियों से कागज बनाया। इससे यह लेखन और चित्रांकन का प्रमुख साधन बन गया।

(ii) 594 ई० में चीन में सबसे पहले लकड़ी के ब्लॉक बने और इससे मुद्रण कला शुरू हुई। 712 ई० तक यह तकनीक चीन के कुछ क्षेत्रों में फैल गई। लगभग 770 ईस्वी में बौद्ध भिक्षु यह तकनीक जापान लेकर आए।

(iii) जापान में पहली किताब 868 ईस्वी में छपी। इस पुस्तक का नाम डायमंड सूत्र था। यह बौद्ध धर्मग्रंथ थी और इसे लकड़ी की तख्तियों पर छापा गया था।

(iv) 1753 ईस्वी में जापान के एदो शहर में कितागावा उतामारो ने एक नई चित्रकला शैली विकसित की जिसे “उकियो” कहा गया, जिसका अर्थ है — “तैरती दुनिया के चित्र”।

(v) इन चित्रों में आम तौर पर शहरों की सुंदरता, फूल, पेड़-पौधे, नदियाँ, मौसम के दृश्य, उत्सव और नृत्य के दृश्य दिखाए जाते थे।

(vi) 10वीं सदी तक वहाँ ब्लॉक प्रिंटिंग से किताबें और कागज़ी मुद्रा छापी जाने लगीं। 1041 ई० में पि-शेंग ने मिट्टी के मूवेबल टाइप बनाए। हर अक्षर एक अलग टुकड़े में होता था। इन्हीं अक्षरों पर स्याही लगाकर कागज़ पर छाप दिया जाता था।

(vii) धीरे-धीरे चीन का शंघाई शहर प्रिंट संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बन गया। इससे किताबें सस्ती और आसानी से मिलने लगीं।

(viii) कोरियाई लोगों ने बाद में लकड़ी और धातु पर अक्षर खोदकर मूवेबल टाइप बनाए। 13वीं सदी के आरंभ में कोरिया में धातु के टाइपों से पहली पुस्तक छापी गई।

प्रश्न 4. ब्लॉक प्रिंटिंग किसे कहते है?
उत्तर– स्याही से लगे काठ के ब्लॉक पर कागज को रखकर छपाई करने की विधि को ब्लॉक प्रिंटिंग कहते हैं। 

गुटेनबर्ग द्वारा प्रिंटिंग प्रेस का विकास

(i) रेशम मार्ग से ब्लॉक प्रिंटिंग के नमूने मार्कोपोलो द्वारा यूरोप (इटली) लाया गया। और 1336 ई० में जर्मनी में पहली पेपर मिल बनाई गई।

(ii) योहान गुटेनबर्ग का जन्म जर्मनी के मेन्जनगर के कृषक, जमींदार और व्यापारी परिवार में हुआ। यह बचपन से ही जैतून (आंवला) नामक फल का तेल निकालने वाले मशीनो से परिचित था। इसलिए यह अपने ज्ञान एवं अनुभव से शीशा, टीन एवं विस्मथ (ठंडा होने पर फैलने वाला धातु) का प्रयोग कर प्रिंटिंग प्रेस (छपाईखाना) का आविष्कार कर दिया।

☞ रोमन वर्णमाला के सभी 26 अक्षरों के लिए टाइप बनाया। इन्हें घुमाने या ‘मूव‘ करने की व्यवस्था की गई। इसलिए गुटेनबर्ग की छपाई मशीन को ‘मूवेबल टाइप प्रिंटिंग मशीन‘ कहा जाता है।

(iii) 1430 में जर्मनी के स्ट्रासबर्ग में योहान गुटेनबर्ग ने नई मुद्रण तकनीक विकसित की। और गुटेनबर्ग ने एक नई प्रकार की स्याही तैयार की, जो धातु के अक्षरों पर अच्छी तरह चिपक जाती थी।

(iv) इन्होंने हैण्डप्रेस (Hand Press) नाम की मशीन बनाई। इस मशीन में लकड़ी का फ्रेम और दो समतल प्लेटें (प्लेट और बेड) लगी होती थीं। पहले अक्षरों (टाइप) पर स्याही लगाई जाती थी, फिर कागज को उन अक्षरों के ऊपर रखकर ऊपर से दबाया जाता था। इस तरह कागज पर अक्षरों की छपाई हो जाती थी।

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(v) गुटेनबर्ग को फस्ट नामक सुनार (साहुकार) से बाइबिल छापने का ठेका प्राप्त हुआ। इसके बाद गुटेनबर्ग ने 1448 ईस्वी में प्रिंटिंग प्रेस से पहले 42 लाइन, फिर 36 लाइन में बाइबिल की छपाई की।

(vi) 421 लाइन वाले बाइबिल का छपाई गुटेनबर्ग द्वारा शुरू किया गया। तभी फस्ट और शुओफर ने उसके प्रिंटिंग प्रेस पर अपना अधिकार कर लिया। जिसके बाद फस्ट और शुओफर द्वारा 421 लाइन वाले बाइबिल का छपाई को पूरा किया गया। उसके बाद शुओफर ने ‘इंडलजन्स’ नामक पुस्तक छापी।

(vii) कौलग्ने, आग्सवर्ग, वेसल, रोम, वेनिस, एन्टवर्प, पेरिस आदि शहर मुद्रण के प्रमुख केन्द्र के रूप में विकसित हुए।

(viii) 1475 ई० में सर विलियम कैक्सटन नामक व्यक्ति मुद्रण कला को इंग्लैंड में लाए। और उन्होंने इंग्लैंड के वेस्टमिन्स्टर कस्बे में पहला मुद्रण प्रेस (Printing Press) स्थापित किया।

(ix) पुर्तगाल में मुद्रण की शुरुआत 1544 ई० में हुई।

मुद्रण क्रांति और उसका प्रभाव

(i) मुद्रण क्रांति से किताबें जल्दी, सस्ती और बड़ी मात्रा में छपने लगीं।

(ii) 15वीं सदी के अंत तक यूरोप में करीब 2 करोड़ किताबें छप चुकी थीं, और 16वीं सदी तक यह संख्या 20 करोड़ हो गई।

(iii) आम लोगों तक ज्ञान और सूचना पहुँचने लगी, और लोगों की सोचचेतना में बड़ा बदलाव आया।

(iv) किताबें हर वर्ग तक पहुँचने से पढ़ने की नई संस्कृति विकसित हुई। और साक्षरता बढ़ी, क्योंकि लोग अब पढ़ना सीखना चाहते थे।

(v) पुस्तकों को रोचक बनाने के लिए उनमें चित्र और लोकगीत जोड़े जाने लगे।

(vi) गांवों में स्कूल खुले, जिससे साक्षरता बढ़कर 60–80% तक हो गई।

(vii) प्रसिद्ध विचारकों जैसे — न्यूटन, थॉमस पेन, वॉल्टेयर और रूसो की किताबें बहुत बड़ी मात्रा में छपने और पढ़ी जाने लगीं।

मार्टिन लूथर और धर्म सुधार की शुरुआत

(i) मार्टिन लूथर जर्मनी के एक प्रसिद्ध धर्म सुधारक थे। उन्होंने रोमन कैथोलिक चर्च की बुराइयों और कुरीतियों की आलोचना की।

(ii) उन्होंने अपनी 95 बातें (स्थापनाएँ) लिखीं, जिनमें चर्च की गलतियों और भ्रष्टाचार का विरोध किया गया था। इन 95 बातों की एक प्रति उन्होंने विटेनबर्ग के गिरजाघर के दरवाजे पर टांग दी।

(iii) लूथर के विचार आम लोगों में लोकप्रिय हुए और प्रोटेस्टेंट धर्म सुधार आंदोलन शुरू हुआ। लूथर ने बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट (बाइबिल का यह हिस्सा) को जर्मन भाषा में अनुवाद करके छपवाया। मुद्रण क्रांति से धार्मिक और नए विचार तेजी से फैले।

(iv) इन नए विचारों से रोमन कैथोलिक चर्च बहुत नाराज़ हुआ। चर्च ने विरोध करने वालों पर “इन्क्वीजीशन” नाम की कड़ी कार्रवाई शुरू की। इस नीति के तहत विरोधी लेखकों, प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं पर प्रतिबंध लगाया गया।

(v) मार्टिन लूथर ने कहा “मुद्रण ईश्वर की दी हुई महानतम देन है सबसे बड़ा तोहफा।”

(vi) 1558 से चर्च ने उन पुस्तकों की सूची बनानी शुरू कर दी जिन्हें वह गलत या खतरनाक मानता था। ऐसी किताबें दोबारा न छपें और न बाँटी जाएँ, इसलिए उन पर रोक लगा दी गई।

गुटेनबर्ग के बाद का तकनीकी विकास

(i) 18वीं सदी के अंत तक प्रेस धातु (Metal) से बनने लगे थे। पहले ये लकड़ी के होते थे।

(ii) 19वीं सदी के मध्य में न्यूयॉर्क के रिचर्ड एम. हो (Richard M. Hoe) ने शक्ति चालित बेलनाकार प्रेस बनाया, जिससे एक घंटे में लगभग 8000 पन्ने छापे जा सकते थे।

(iii) 19वीं सदी के अंत तक ऑफसेट प्रेस आ गया, जिससे एक साथ छह रंगों में छपाई संभव हुई। 20वीं सदी की शुरुआत में बिजली से चलने वाले इलेक्ट्रिक प्रेस आने लगे, जिनसे छपाई का काम बहुत तेज़ हो गया।

भारत में प्रेस का विकास

(i) छापाखाने के आने से पहले भारत में हाथ से लिखी किताबें (पांडुलिपियाँ) बनाई जाती थीं।

(ii) ये संस्कृत, अरबी और फ़ारसी भाषाओं में होती थीं और इनमें सुंदर चित्रसुलेख बनाए जाते थे।

(iii) इन किताबों को सजाया जाता था और जिल्द (कवर) लगाकर सुरक्षित रखा जाता था।

(iv) लेकिन ये किताबें बहुत नाजुक, महँगी और कम मात्रा में बनती थीं। इसलिए आम लोग इन्हें खरीद या पढ़ नहीं पाते थे।

(v) पुर्तगालियों द्वारा 16वीं सदी में भारत में मुद्रण कला लाया गया। जेसुइट पुजारियों (कैथोलिक ईसाई धर्म के पुजारी) ने कोंकणी भाषा (गोवा और महाराष्ट्र की भाषा) में कई पुस्तिकाएँ छापीं। और 1579 ई. में कैथोलिक पुजारियों ने पहली तमिल पुस्तक छापी। डच प्रोटेस्टेंटों ने भी कई पुस्तकों का अनुवाद कर छापा।

समाचार पत्रों की स्थापना

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(i) 1766 में विलियम बोल्टस ने पहला समाचार पत्र निकालने की कोशिश की, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने नाराज़ होकर उन्हें इंग्लैंड भेज दिया।

(ii) 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने “बंगाल गजट” नामक पहला समाचार पत्र प्रकाशित किया। लेकिन उन्होंने कंपनी की आलोचना की, इसलिए हिक्की को सज़ा दी गई और उनका प्रेस जब्त कर लिया गया।

(iii) नवंबर 1780 में “इंडिया गजट” दूसरा भारतीय समाचार पत्र बना।

(iv) 18वीं सदी के अंत तक कई और समाचार पत्र प्रकाशित हुए जैसे — कलकत्ता कैरियर, एशियाटिक मिरर, ओरिएंटल स्टार, बंबई गजट, हैराल्ड, मद्रास कैरियर, मद्रास गजट। ये सारे साप्ताहिक पत्र थे। इनके लेखक मुख्यतः कंपनी के अफसर, व्यापारी और मिशनरी (धार्मिक प्रचारक) थे।

(v) 1816 में गंगाधर भट्टाचार्य ने भारतीयों द्वारा प्रकाशित पहला समाचार पत्रबंगाल गजट” निकाला (साप्ताहिक)।

(vi) 1818 में ब्रिटिश व्यापारी और पत्रकार जेम्स सिल्क बकिंघम ने “कलकत्ता जर्नल” नामक समाचार पत्र निकाला। उनके लेखों में सरकार की नीतियों की आलोचना होती थी, जिससे लॉर्ड हेस्टिंग्स और जॉन एडम्स जैसे अंग्रेज अधिकारी नाराज़ हो गए। इसी कारण 1823 में बकिंघम को भारत से इंग्लैंड वापस भेज दिया गया।

(vii) बकिंघम ने प्रेस को जनमत का दर्पण (mirror of public opinion) बताया। यानि ऐसा माध्यम, जो लोगों की सोच और सच्चाई को सामने लाता है।

(viii) राजा राममोहन राय ने 1821 में ‘संवाद कौमुदी’ (बंगाली) और 1822 में ‘मिरातुल’ (फ़ारसी) नामक सामाजिक सुधार पत्रिका निकाली। और अंग्रेज़ी में “ब्राह्मिनिकल मैगज़ीन” भी निकाली।

(ix) 1822 में बंबई से गुजराती भाषा में दैनिक बम्बई, द्वारकानाथ टैगोर, प्रसन्न कुमार टैगोर और राममोहन राय के सहयोग से 1831 में जामे जमशेद, 1851 में गोफ्तार और अखबारे-सौदागर आदि समाचार पत्र निकले।

प्रेस की विशेषताएँ — समय के साथ बदलता परिप्रेक्ष्य

☛19वीं सदी के पूर्वाद्ध का दौर (1857 से पहले)

(i) उस समय आम लोग और ज़मींदार राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते थे।
(ii) अखबार बहुत कम निकलते थे और उनसे कोई कमाई नहीं होती थी।
(iii) अंग्रेज अधिकारी अखबारों को गंभीरता से नहीं लेते थे, क्योंकि उनका जनता पर कोई खास असर नहीं था।
(iv) कुछ अखबारों ने अंग्रेजों के अन्याय, धर्म में दखल और भेदभाव की आलोचना की।
(v) इन अखबारों से धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों को मदद मिली।
(vi) धीरे-धीरे लोगों में जागरूकता और देशभक्ति की भावना बढ़ने लगी।

1857 के बाद भारत का प्रेस दो भागों में बँट गया —

(i) एंग्लो इंडियन प्रेस = इसे अंग्रेजों या उनके समर्थकों द्वारा चलाया जाता था। यह “फूट डालो और राज करो” की नीति का समर्थन करता था। और यह भारतीय एकता के प्रयासों का घोर विरोधी था।

(ii) भारतीय प्रेस = यह राष्ट्रवादी विचार का प्रचार प्रसार करता था। और अंग्रेजी शासन की आलोचना करता था।

अंग्रेजों द्वारा प्रकाशित प्रमुख समाचार पत्र

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(i) टाइम्स ऑफ इंडिया (1861) – यह समाचार पत्र बंबई (मुंबई) से प्रकाशित हुआ था। यह ब्रिटिश विचारों को फैलाने का काम करता था।

(ii) स्टेट्समैन (1875) – यह पत्र कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। यह विचारों में उदार (liberal) था और कभी-कभी सरकार और कांग्रेस दोनों की आलोचना करता था।

(iii) इंगलिशमैन – यह भी कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह अंग्रेज सरकार के हर काम का समर्थन करता था और भारतीय नेताओं का विरोध करता था।

(iv) पायनियर (1865) – यह समाचार पत्र इलाहाबाद से निकलता था। यह अखबार पूरी तरह से सरकार समर्थक था और भारतीयों के खिलाफ लेख लिखता था।

(v) सिविल एंड मिलिट्री गजट (1876) – यह पत्र लाहौर से प्रकाशित होता था। यह अंग्रेज अधिकारियों का प्रिय पत्र था क्योंकि इसमें सरकार और सेना से जुड़ी खबरें प्रमुख रूप से छपती थीं।

भारतीयों द्वारा प्रकाशित प्रमुख समाचार पत्र

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(i) ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 1858 में ‘सोम प्रकाश’ (बंगाली साप्ताहिक) निकाला। यह नीलहे किसानों के हित में आवाज़ उठाने वाला पत्र था। और इसकी गतिविधियों के कारण लॉर्ड लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878) लागू किया। बाद में उन्होंने ‘हिन्दू पैट्रियट’ पत्र भी संभाला।

(ii) सुरेन्द्रनाथ टैगोर और मनमोहन घोष ने 1874–75 में लंदन से ‘इंडियन मिरर’ निकाला। और यह भारतीयों द्वारा संपादित उत्तरी भारत का पहला दैनिक पत्र था।

(iii) केशवचंद्र सेन ने बंगाली में ‘सुलभ समाचार’ नामक दैनिक समाचार पत्र निकाला।

(iv) मोतीलाल घोष ने 1868 में ‘अमृत बाजार पत्रिका’ शुरू की। यह पहले बंगाली में थी, बाद में 1878 में लिटन के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिए यह रातो-रात अंग्रेजी में प्रकाशित होने लगा।

(v) जोगेन्द्रनाथ बोस ने 1881 में ‘बंगवासी’ नामक पत्र निकाला। यह बहुत लोकप्रिय राष्ट्रवादी पत्र था।

(vi) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कलकत्ता से हिन्दी बंगवासी, आर्यावर्त, उचितवक्ता, भारत मित्र जैसे पत्र चलाए। और कालाकांकड (उत्तर प्रदेश) से हिन्दी में हिन्दोस्तान नामक पत्रिका चलाए।

(vii) भारतेन्दु हरिश्चंद्र, हिन्दी पत्रकारिता के जनक माने जाते हैं। इन्होंने ‘कविवचन सुधा’ (1867) और ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’ (1872) प्रकाशित कीं। इनके लेखों ने देशभक्ति और समाज सुधार को बल दिया।

(viii) बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ और रामकृष्ण वर्मा ने ‘भारत जीवन’ पत्रिका निकाली। सच्चिदानंद सिन्हा ने 1899 ईस्वी में ‘हिन्दुस्तान रिव्यू’ नामक अंग्रेजी मासिक पत्रिका शुरू की। इसका दृष्टिकोण राजनीतिक था।

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(ix) बाल गंगाधर तिलक ने 1881 में ‘केसरी’ (मराठी), ‘मराठा’ (अंग्रेजी) पत्र शुरू किए। ये उग्र राष्ट्रवादी विचारों से भरे थे और जनता पर गहरा असर डालते थे।

(x) एम. जी. रणाडे ने 1862 में ‘इन्दु प्रकाश’ और फिरोजशाह मेहता ने 1913 में ‘बाम्बे क्रॉनिकल’ नामक पत्रिका शुरू की।

(xi) अरविंद घोष और बारिंद्र घोष ने ‘जुगांतर’ और ‘वंदे मातरम्’ अखबारों के ज़रिए उग्र राष्ट्रवाद फैलाया। ‘द हिन्दू’ (1878, मद्रास) शुरू में साप्ताहिक पत्र था, बाद में (1881 में) इसे दैनिक पत्र में बदल दिया गया। और यह अखबार उदार विचारों वाला था।

(xii) एनी बेसेन्ट ने प्रेस को राष्ट्रीय आंदोलन का प्रचार का माध्यम बनाया। ‘मद्रास स्टैंडर्ड’ को अपने अधीन लेकर उसका नाम ‘न्यू इंडिया’ रखा। इससे उन्होंने होम रूल आंदोलन का प्रचार किया।

(xiii) गाँधीजी एक महान पत्रकार भी थे। उन्होंने ‘यंग इंडिया’ और ‘हरिजन’ पत्रों से अपने विचार जनता तक पहुँचाए। इन पत्रों ने आम जनता को आंदोलन और अहिंसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

(xiv) मोतीलाल नेहरू ने 1919 ईस्वी में “इंडिपेंडेंस” और शिव प्रसाद गुप्त ने “आज” नामक अखबार शुरू किया। के. एम. पन्निकर ने 1922 ईस्वी में “हिन्दुस्तान टाइम्स” नामक अखबार शुरू किया। इसके बाद इसका संचालन मदनमोहन मालवीय ने किया, और 1927 में जी. डी. बिड़ला ने इस अखबार को अपने नियंत्रण (मालिकाना हक़) में ले लिया।

(xv) मराठी साप्ताहिक क्रांति — यह पत्र वर्कर्स एंड पीज़ेंट्स पार्टी ऑफ इंडिया का प्रतिनिधित्व करता था और मजदूरों–किसानों के हक़ में आवाज़ उठाता था।

(xvi) अंग्रेजी साप्ताहिक “न्यू स्पार्क” और “कांग्रेस सोशलिस्ट” — ये पत्र मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों को फैलाने वाला था।

(xvii) एम. एन. राय ने 1930 ईस्वी में अंग्रेजी साप्ताहिकइंडिपेंडेंट” (Independent) शुरू किया। इसमें भारत की स्वतंत्रता और समाजवाद के विचारों को प्रमुखता दी गई।

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(xviii) मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने 1912 में “अल-हिलाल” और 1913 में “अल-बलाग” नामक पत्रिका कलकत्ता से प्रकाशित की। इन पत्रों में अंग्रेजी राज की नीतियों की तीखी आलोचना की जाती थी। इनसे मुसलमानों में भी आज़ादी की भावना फैली।

(xix) मोहम्मद अली ने अंग्रेजी में “कामरेड” और उर्दू में “हमदर्द” निकाले। ये दोनों पत्र भारत की स्वतंत्रता और हिंदू–मुस्लिम एकता के पक्षधर थे।

(xx) गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1910 में “प्रताप” नामक पत्र कानपुर से निकाला। यह पत्र किसानों, मजदूरों और आम जनता की आवाज़ था।

(xxi) हरदयाल ने 1913 में “गदर” नामक पत्र सैन फ्रांसिस्को (अमेरिका) से प्रकाशित किया। जनवरी 1914 से इसका पंजाबी संस्करण भी छपने लगा। इसका उद्देश्य विदेशों में रहने वाले भारतीयों के दिलों में देशभक्ति और स्वतंत्रता का जोश जगाना था।

राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेस की भूमिका और प्रभाव

(i) प्रेस ने जनता को अंग्रेजों के अत्याचारों और शोषणकारी नीतियों के बारे में बताया।

(ii) अखबारों ने लोगों में देशभक्ति और आज़ादी की भावना जगाई।

(iii) प्रेस ने राष्ट्रीय नेताओं के विचारों को जनता तक पहुँचाया और एकता का संदेश दिया।

(iv) समाचार पत्रों ने जनता को राजनीतिक शिक्षा दी और आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

(v) कुल मिलाकर, प्रेस आज़ादी की लड़ाई का सबसे प्रभावशाली हथियार बन गया।

(vi) भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अंग्रेजों के पक्षपात (भेदभाव) पर नाराज़ होकर कहा कि — “हिन्दू मजिस्ट्रेट (न्यायाधीश) अगर किसी अंग्रेज से गलती हो जाए तो उसे सज़ा नहीं दे सकता, लेकिन अंग्रेज मजिस्ट्रेट आसानी से किसी हिन्दू को सज़ा दे देता है।”

अर्थात अंग्रेज शासक न्याय में बराबरी नहीं करते थे। वे भारतीयों के साथ अन्याय करते थे और हमेशा अंग्रेजों का पक्ष लेते थे।

(vii) “भारत मित्र” अखबार ने भारत से चावल के निर्यात का विरोध किया, क्योंकि देश में लोग भूख से मर रहे थे।

(viii) 1907 में सूरत अधिवेशन में कांग्रेस में फूट पड़ गई। दोनों दलों ने अपने विचार जनता तक पहुँचाने के लिए प्रेस का सहारा लिया। मृदु दल (Moderate leaders) ने प्रेस के जरिए संयमित और सुधारवादी नीतियों का प्रचार किया। वहीं अतिवादी (Extremist) नेताओं — बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल  ने उग्र राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार किया।

भारतीय नरेशों (राजा) के प्रति प्रेस का रुख

(i) भारतीय प्रेस (अखबारों) का देशी राजाओं और नरेशों के प्रति रवैया सकारात्मक था।

(ii) जब भी अंग्रेज सरकार भारतीय राजाओं के अधिकारों में दखल देती थी, प्रेस उसकी आलोचना करता था।

(iii) प्रेस राजाओं को याद दिलाता था कि वे अपनी प्रजा का भला करें और नैतिक रूप से जिम्मेदार बने रहें।

(iv) अगर कोई राजा प्रजा की सेवा छोड़कर केवल ऐशोआराम, मनोरंजन या नशे में लिप्त रहता था, तो प्रेस उसकी कड़ी आलोचना करता था।

प्रेस पर अंग्रेजों द्वारा लगाए गए प्रतिबंध

(i) 1799 में लार्ड वेल्ज़ली ने “पूर्व-परीक्षण अधिनियम” लागू किया — हर खबर छापने से पहले सरकार की अनुमति (पूर्व-परीक्षण) जरूरी थी। 1807 में इसे पत्रिकाओं और पुस्तकों पर भी लागू किया गया। बाद में लॉर्ड क्रैनब्रुक ने 1878 में पूर्व-परीक्षण की धारा हटा दी और एक प्रेस आयुक्त नियुक्त किया।

(ii) 1823 में जॉन एडम्स ने अनुज्ञप्ति नियम (लाइसेंस नियम) बनाया — बिना सरकारी लाइसेंस प्रेस चलाने पर जुर्माना या जेल की सज़ा थी। इस नियम से राजा राममोहन राय का “मिरात-उल-अखबार” बंद कर दिया गया।

(iii) 1835 में चार्ल्स मेटकाफ ने “भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता” नामक अधिनियम बनाकर लाइसेंस नियमों को हटाया, इसलिए उन्हें “भारतीय प्रेस का मुक्तिदाता” कहा गया। अब अखबार को सिर्फ प्रकाशन स्थान की सूचना सरकार को देनी होती थी।

(iv) 1857 के बाद प्रेस की स्थिति = देशी अखबारों ने अकाल, भ्रष्टाचार और सरकारी खर्चों की आलोचना की, जिससे जनता में असंतोष बढ़ा। लॉर्ड लिटन को लगा कि यह असंतोष भारतीय अखबारों के कारण है, इसलिए उसने प्रेस को नियंत्रित करने के लिए 1857 के विद्रोह के समय फिर से लाइसेंस एक्ट लाया, ताकि विद्रोही विचारों वाले पत्रों को रोक सके।

(v) 1867 का पंजीकरण अधिनियम — हर अखबार को मुद्रक, प्रकाशक और स्थान का नाम देना अनिवार्य किया गया, और सरकार को एक फोटो कॉपी भेजनी पड़ती थी।

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(vi) देशी भाषा समाचार पत्र अधिनियम (वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट) 1878 — यह कानून लॉर्ड लिटन ने बनाया ताकि देशी भाषा के अखबारों की आवाज़ दबाई जा सके। इसके अनुसार जिला दंडाधिकारी किसी समाचार पत्र को चलाने की अनुमति केवल शर्तों के साथ दे सकता था। शर्त यह थी कि अखबार सरकार या ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ कुछ नहीं लिखेगा।

☛ इसी कारण इसे “देशी भाषाओं का मुँह बंद करने वाला कानून” कहा गया। बाद में लॉर्ड रिपन ने यह कानून रद्द कर दिया। लेकिन 1898 में एक नया कानून बना, जिसमें कहा गया कि अगर कोई पत्र सेना में असंतोष फैलाए या सरकार के खिलाफ भड़काए, तो उसे सज़ा दी जा सकती है।

(vii) समाचार पत्र अधिनियम 1908 — लॉर्ड कर्जन की नीतियों के खिलाफ देश में उग्र राष्ट्रवाद बढ़ रहा था। इसे रोकने के लिए अंग्रेज सरकार ने 1908 में यह अधिनियम बनाया। अगर कोई अखबार हिंसा या हत्या के लिए उकसाने वाले लेख छापता, तो सरकार उसकी जायदाद और प्रेस जब्त कर सकती थी। प्रकाशक को सिर्फ 15 दिन के अंदर हाईकोर्ट में अपील करने की अनुमति थी।

(viii) 1910 का भारतीय समाचार पत्र अधिनियम — सरकार ने 1878 के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट जैसे सख्त नियम दोबारा लागू किए। अगर कोई अखबार सरकार के खिलाफ कुछ छापता था, तो उसकी जमानत और प्रतियाँ जब्त की जा सकती थीं।

⪼ पहले विश्व युद्ध (1914–18) में सरकार ने “भारत सुरक्षा नियम” के ज़रिए राजनीतिक लेख या सरकार की आलोचना पर पूरा प्रतिबंध लगा दिया। 1921 में तेज बहादुर सप्रू की समिति ने कहा कि 1908 और 1910 के ये दोनों कानून खत्म कर दिए जाएँ — बाद में ये कानून रद्द कर दिए गए।

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(ix) 1931 का भारतीय प्रेस (संकटकालीन शक्तियाँ) अधिनियम — सरकार ने फिर से 1910 जैसे सख्त नियम लागू किए। अगर कोई अखबार विद्रोह या अपराध के लिए उकसाता, तो सज़ा दी जाती थी। दूसरे विश्व युद्ध (1939–45) के समय सरकार ने हर खबर छपने से पूर्व-परीक्षण शुरू कर दी। ये सभी सख्त नियम 1945 में खत्म कर दिए गए।

(x) 1947 की समाचार पत्र जाँच समिति — इसने सुझाव दिया कि पुराने कड़े कानून हटा दिए जाएँ।

(xi) 1951 का समाचार पत्र आपत्तिजनक विषय अधिनियमआज़ादी के बाद भी सरकार चाहती थी कि अखबारों पर कुछ नियंत्रण रहे। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 19(2) में बदलाव कर यह नया कानून बनाया गया। अगर कोई अखबार भड़काऊ या आपत्तिजनक खबर छापता था, तो सरकार उस प्रेस को जब्त कर सकती थी। यह कानून 1956 तक लागू हुआ।

☞ लेकिन इससे पत्रकारों को लगा कि सरकार उनकी आज़ादी छीन रही है। इसलिए उन्होंने विरोध प्रदर्शन किया। इस विरोध के बाद सरकार ने एक समिति बनाई, जिसके अध्यक्ष “राजाध्यक्ष” थे। इसीलिए इसे राजाध्यक्ष समिति कहा गया।

➣ राजाध्यक्ष समिति ने “अखिल भारतीय समाचार पत्र परिषद” बनाया। जिसका कार्य पत्रकारों की शिकायतों को सुनना, गलत खबरों पर ध्यान देना और पत्रकारिता के नियम तय करना था।

स्वतंत्र भारत में प्रेस की भूमिका

(i) आज़ादी के बाद प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बना।
(ii) यह सरकार की गलतियों को उजागर करता है और जनता की आवाज़ बनता है।
(iii) प्रेस अब शिक्षा, समाज, राजनीति, विज्ञान और मनोरंजन — हर क्षेत्र को प्रभावित करता है।
(iv) यह भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी रखता है और लोगों को जानकारी और जागरूकता देता है।
(v) आज का प्रेस समाज में एकता, सुधार और ज्ञान फैलाने का काम कर रहा है।

Bharati Bhawan

☛ “खुशनवीसी” शब्द दो हिस्सों से बना है — “खुश” यानी सुंदर या अच्छा और “नवीसी” यानी लिखना। इसलिए “खुशनवीसी” का अर्थ हुआ — “सुंदर लिखावट” या “सुलेख।”

☞ एक चित्र में देवी को आकाश (स्वर्ग) से छापाखाना लेकर धरती पर उतरते हुए दिखाया गया है। इसका मतलब था कि लोगों को लगता था कि छापाखाना जैसे स्वर्ग से आया कोई वरदान है।

⪼ देवी को दो रूप में दिखाया गया–
(i) मिनर्वा (Minerva) – ज्ञान और शिक्षा की देवी
(ii) मर्करी (Mercury) – देवदूत और विवेक (समझदारी) का प्रतीक

➣ 16वीं सदी में एक चित्र बना जिसका नाम था मैकबर डांस (अर्थ: “डरावना नाच” या “वीभत्स नाच”)। इस चित्र में छापाखाना को खतरनाक बताया गया और यह बुरे विचार को फैलाकर दुनिया को बर्बाद कर रहा है।

☛ इरैस्मस ने कहा कि किताबें अब मक्खियों की तरह हर जगह फैल रही हैं। और उनका मानना था कि जरूरत से ज्यादा किताबें होना अच्छा नहीं है।

☞ पेनी चैपबुक्स = इंग्लैंड में छपने वाली बहुत सस्ती और छोटी किताबें को पेनी चैपबुक्स (एकपैसिया किताब) कहा जाता है। इनकी कीमत सिर्फ एक पेनी (एक पैसा) होती थी। इन किताबों को बेचने वाले लोगों को चैपमेन कहा जाता था।

➣ पेनी मैगज़ीन या एकपैसिया पत्रिकाएँ बहुत सस्ती पत्रिकाएँ थीं। इनकी कीमत एक पेनी (एक पैसा) होती थी।

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⪼ विलियोथीक ब्ल्यू = फ्रांस में छपने वाली बहुत सस्ती और छोटी किताबें को विलियोथीक ब्ल्यू कहा जाता है। इन्हें नीली जिल्द में बाँधा जाता था, इसीलिए इसका नाम “ब्ल्यू” पड़ा।

☞ फ्रांसीसी उपन्यासकार लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए का मानना था कि — छापाखाना प्रगति का सबसे शक्तिशाली हथियार है। उन्होंने लिखा — “हे निरंकुश शासकों, अब डरने का समय आ गया है। लेखक की कलम की ताकत तुम्हें हिला देगी।”

☛ मांटेस्क्यू की पुस्तक स्पिरिट ऑफ लॉज (Spirit of Laws), वाल्तेयर की लेटर्स फिलॉसोफिकस  तथा रूसो की सोशल कॉन्ट्रैक्ट (Social Contract) ने फ्रांस में नई चेतना जागृत कर दी।

➣ रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की ने अपनी दो किताबों — “मेरा बचपन” (My Childhood) और “मेरा विश्वविद्यालय” (My University) में मजदूरों के कठिन संघर्ष से भरे जीवन का वर्णन किया है।

⪼ इंग्लैंड में सस्ती किताबें एक श्रृंखला (सीरीज़) के रूप में छापी जाती थीं। इन किताबों की कीमत एक शिलिंग थी, इसलिए इन्हें शिलिंग श्रृंखला कहा गया।

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दोस्तों उम्मीद करता हूं कि ऊपर दिए गए कक्षा 10वीं के इतिहास के पाठ 08 प्रेस संस्कृति एवं राष्ट्रवाद (press sanskriti evam rashtravad) का नोट्स और उसका प्रश्न को पढ़कर आपको कैसा लगा, कॉमेंट करके जरूर बताएं। धन्यवाद !

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