आज के इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 8वीं अतीत से वर्तमान का पाठ ‘ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना’ का नोट्स को देखने वाले है। gramin kshetra per shasan chalana
ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना |
कंपनी दिवान बन गई
☛ 12 अगस्त 1765 को मुग़ल बादशाह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकारी) सौंप दी। इसका मतलब यह था कि अब कंपनी इन इलाकों से लगान वसूल सकती थी। इस समय अंग्रेज अधिकारी रॉबर्ट क्लाइव था।
☞ जब कंपनी को टैक्स इकट्ठा करने का हक मिल गया, तो उसे अपने इलाकों का शासन चलाने और पैसे कमाने का तरीका ढूँढ़ने लगा। क्योंकि कंपनी का असली मकसद मुनाफा कमाना था।
कंपनी की आमदनी
⪼ जब कंपनी को बंगाल में लगान वसूलने का अधिकार मिला, तब भी वह खुद को सिर्फ एक व्यापारी ही मानता रहा। वह चाहता था कि ज़्यादा से ज़्यादा टैक्स (लगान) वसूले जाएँ। लेकिन ये तय करने की कोई पक्की व्यवस्था नहीं बनाई कि कितना लगान वसूला जाए और कैसे।
➣ 1765 से पहले कंपनी ब्रिटेन से सोना और चाँदी लाकर यहाँ के सामान खरीदती थी। लेकिन अब वो सामान बंगाल में वसूले गए टैक्स के पैसों से ही खरीदने लगी।
👉 कारीगरों को बहुत कम दाम में सामान बेचने के लिए मजबूर किया गया, इसलिए कारीगर गाँव छोड़कर भागने लगे। किसान टैक्स नहीं चुका पा रहे थे, क्योंकि आमदनी कम थी। उत्पादन घटने लगा, खेती बर्बाद होने लगी।
☞ जिससे 1770 ईस्वी में बंगाल में एक भीषण अकाल पड़ा। इसका मुख्य कारण कंपनी की अत्यधिक कर वसूली था। जिसके कारण एक तिहाई आबादी (करीब एक करोड़) भुखमरी और बीमारियों से मारे गए।
खेती में सुधार की ज़रूरत
☛ जब बंगाल की अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगी और किसान लगान नहीं चुका पा रहे थे, तब कंपनी को चिंता होने लगी कि अब उसे लगातार टैक्स नहीं मिलेगा। इसलिए कंपनी के अफसरों ने सोचा –
“अगर खेती अच्छी होगी, तो किसान ज्यादा उपजाएँगे और हमको ज़्यादा टैक्स मिलेगा।”
⪼ इस पर लगभग 20 साल तक बहस होती रही। अंत में 1793 में कंपनी ने एक नया नियम लागू किया जिसका नाम स्थायी बंदोबस्त था। जिस समय स्थायी बंदोबस्त लागू किया गया उस समय बंगाल का गवर्नर-जनरल कॉर्नवालिस था।
स्थायी बंदोबस्त
☞ स्थायी बंदोबस्त में राजा और तालुकदारों को ‘जमींदार’ बना दिया गया। और उन्हें किसानों से टैक्स वसूलने का काम दिया गया। कंपनी को एक तय रकम हर साल देने की जिम्मेदारी जमींदार की थी। ये रकम स्थायी थी, यानी आगे कभी नहीं बढ़ाई जाएगी।
स्थायी बंदोबस्त की समस्याएँ
⪼ कंपनी को उम्मीद थी कि जमींदार खेती में सुधार करेंगे। लेकिन जमींदार खर्च करने को तैयार नहीं थे। और कंपनी का तय की गई रकम इतनी ज़्यादा थी कि कई जमींदार उसे चुका ही नहीं पाए। और नहीं चुका पाने के कारण उनकी ज़मींदारी छीन ली गई।
➣ लेकिन 19वीं सदी की शुरुआत में कीमतें बढ़ीं और खेती का विस्तार हुआ। इससे जमींदारों की कमाई बढ़ने लगी। लेकिन कंपनी को कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि राजस्व तो पहले से ही “स्थायी” कर दिया गया था।
☞ स्थायी बंदोबस्त से न तो खेती में सुधार हुआ, न ही किसान खुश हुए। इसका सबसे ज़्यादा फायदा जमींदारों को हुआ, और सबसे ज़्यादा नुकसान किसानों को हुआ।
एक नयी व्यवस्था
⪼ स्थायी बंदोबस्त में टैक्स की रकम तय हो चुकी थी, इसलिए वह बढ़ाई नहीं जा सकती थी। इस वजह से कंपनी को लगा कि राजस्व प्रणाली में बदलाव जरूरी है। इसलिए उत्तर-पश्चिमी प्रांत (पंजाब, दिल्ली और उत्तरप्रदेश) में एक नयी व्यवस्था लाया। यह व्यवस्था 1822 में होल्ट मैकेंजी नाम के अंग्रेज़ अधिकारी ने शुरू की।
☞ मैकेंजी को लगा कि गाँव एक अहम सामाजिक इकाई है। इसलिए वह गाँव-गाँव जाकर जमीन की जाँच की, खेतों की माप की और रीति-रिवाज़ों का लेखा-जोखा तैयार किया। इसके बाद हर खेत से उपज के अनुसार अनुमानित टैक्स तय किया गया। और यह टैक्स अस्थाई था, यानी समय पर बदलाव की गुंजाइश थी। और टैक्स वसूलने की ज़िम्मेदारी गाँव के मुखिया को दी गई।
☛ उस समय पंजाब, दिल्ली, उत्तरप्रदेश के इलाकों में गाँव या ग्राम समूह को महाल कहा जाता था, इसलिए इस व्यवस्था का नाम महालवारी बंदोबस्त (व्यवस्था) रखा गया।
रैयतवारी व्यवस्था
(i) दक्षिण भारत के ब्रिटिश नियंत्रण वाले क्षेत्रों में स्थायी बंदोबस्त की जगह पर एक नई व्यवस्था लाई गई, जिसे रैयतवार या रैयतवारी व्यवस्था कहते है।
(ii) रैयत का मतलब किसान होता है। इस व्यवस्था की शुरुआत कैप्टन एलेक्जेंडर रीड ने की। और इसे आगे बढ़ाया टॉमस मुनरो ने। इसलिए इस व्यवस्था को मुनरो व्यवस्था भी कहते है।
(iii) दक्षिण भारत में पारंपरिक जमींदार नहीं थे, इसलिए कंपनी, सीधे किसानों (रैयतों) से टैक्स लिया करती थी। उस समय मद्रास का गवर्नर टॉमस मुनरो (1819-1826) थे।
☞ मुनरो का मानना था कि “अंग्रेजों को किसानों की पिता की तरह रक्षा करनी चाहिए।”
सब कुछ ठीक नहीं था
⪼ राजस्व अधिकारियों ने बहुत अधिक लगान तय कर दिया। और किसानों के लिए उसे चुकाना मुश्किल हो गया। इसलिए किसान गाँव छोड़कर भागने लगे, जिससे कई गाँव पूरी तरह से वीरान हो गए।
➣ रिकार्डो ने 1821 ईस्वी में प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी नामक पुस्तक लिखे। जिसमे किसानों का श्रम और जमींदारों के लाभ के बारे में बताया।
यूरोप के लिए फसलें
☞ अंग्रेजों ने गाँवों से टैक्स (राजस्व) वसूलने के साथ- साथ यूरोप की ज़रूरत की फसलें भी उगवान शुरू कर दिया। अठारहवीं सदी के अंत तक अंग्रेजों ने अफीम और नील की खेती पर ज़ोर दिया।
👉 अंग्रेज बंगाल में पटसन, असम में चाय, संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में गन्ना, पंजाब में गेहूँ, महाराष्ट्र और पंजाब में कपास तथा मद्रास में चावल की खेती करवाते थे।
⪼ भारत और इंग्लैंड के कपड़ों पर नीले रंग का प्रयोग होता था, जो नील नामक पौधे से प्राप्त होता था।
भारतीय नील की माँग क्यों थी
➣ नील का पौधा उष्णकटिबंधीय (गर्म) इलाकों में ही उगता है। भारत की जलवायु इस पौधे के लिए उपयुक्त थी। इसलिए भारत दुनिया में नील का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। 13वीं सदी तक इटली, फ्रांस और ब्रिटेन के लोग भारतीय नील का उपयोग करते थे।
☞ यूरोप में एक वोड नामक पौधा था, जिससे नीला रंग बनाया जाता था। यह शीतोष्ण (ठंडे) इलाकों में उगता था, इसलिए यूरोप में आसानी से उगाया जाता था। लेकिन वोड का रंग फीका और बेजान होता था, जबकि नील का रंग चमकदार होता था।
☛ नील की चमक और गुणवत्ता के कारण वोड उत्पादकों को नुकसान होने लगा। और उन्होंने अपनी सरकारों से कहा कि नील के आयात पर रोक लगाई जाए। लेकिन बाद में यूरोपीय सरकार को झुकना पड़ा।
☞ 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन में औद्योगीकरण शुरू हो चुका था और कपड़ों की रंगाई के लिए नील की माँग बहुत तेज़ी से बढ़ गई। वेस्टइंडीज और अमेरिका ने नील की आपूर्ति बंद कर दी। तब ब्रिटेन के रंगरेज भारत की तरफ़ मुड़े क्योंकि यहां नील की खेती सस्ती और आसान थी।
प्रश्न 1. बाग़ान किसे कहते है?
उत्तर– वैसा विशाल खेत जिस पर बाग़ान मालिक बहुत सारे लोगों से जबरन काम करवाते थे, उसे बाग़ान कहा जाता था।
भारत में ब्रिटेन की बढ़ती दिलचस्पी
⪼ यूरोप में नील की माँग तेज़ी से बढ़ने लगी। तब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में नील की खेती बढ़ाने की योजना बनाई। और 18वीं शताब्दी के आखिरी दशक में बंगाल में उगा नील दुनिया भर में निर्यात किया जाने लगा।
☛ सन् 1788 में जब ब्रिटेन नील बाहर से मँगाता था, तो उसमें से सिर्फ 30 प्रतिशत नील भारत से जाता था, लेकिन सन् 1810 तक ब्रिटेन जितना भी नील मँगाता था, उसमें से 95 प्रतिशत नील सिर्फ भारत से आता था।
नील की खेती कैसे होती थी?
☞ नील की खेती के दो तरीके थे – निज खेती और रैयती खेती।
(i) निज खेती = निज खेती की व्यवस्था में बाग़ान मालिक अपनी ज़मीन पर खुद नील उगाते थे।ज़मीन खुद खरीदते या किराए पर लेते थे। और मज़दूर रखकर नील की खेती करवाते थे।
(ii) रैयती खेती = रैयती खेती में स्थानीय किसानों से नील की खेती कराई जाती थी। बाग़ान मालिक किसानों से जबरदस्ती या मजबूरी में खेती करवाते थे।
निज खेती की समस्याएँ
(i) नील की खेती के लिए उपजाऊ जमीन चाहिए। और ऐसी जमीन गांववालों के पास थी, लेकिन मालिकों के पास छोटे-छोटे खेत थे।
(ii) मालिकों ने फैक्ट्री के आसपास की जमीन कब्ज़ाने की कोशिश की।
(iii) नील की खेती के समय बहुत सारे मजदूर चाहिए होते थे। पर उसी समय धान की खेती भी होती थी। इसलिए मजदूर मिल नहीं पाते है।
(iv) नील की खेती के लिए हल-बैलों की जरूरत = एक बीघा नील की खेती के लिए 2 हल चाहिए होते थे। इतने सारे हल खरीदना और उनका रख-रखाव बहुत मुश्किल और महँगा था।
(v) किसानों अपना हल नहीं देते थे।
⪼ इतनी दिक्कतों के कारण बाग़ान मालिक ज्यादा जमीन पर निज खेती नहीं करते थे। 19वीं सदी के अंत तक नील की खेती की कुल ज़मीन का 25% से भी कम हिस्सा निज खेती का था। बाकी ज़मीन पर नील की खेती रैयती व्यवस्था के तहत होती थी।
➣ रैयती व्यवस्था में किसानों को कर्ज़ और दबाव देकर उनसे नील उगवाई जाती थी। यह एक ऐसा चक्र था, जिसमें किसान हमेशा कर्ज़ में डूबे रहते थे।
प्रश्न 2. गुलाम किसे कहते है?
उत्तर– ऐसा व्यक्ति जो किसी दास-स्वामी की संपत्ति होता है। गुलाम के पास कोई आज़ादी नहीं होती, उसे अपने मालिक के लिए काम करना होता है।
प्रश्न 3. बीघा किसे कहते है?
उत्तर– बीघा एक ज़मीन नापने की पुरानी इकाई है। ब्रिटिश शासन से पहले बीघे का आकार अलग-अलग होता था। बंगाल में अंग्रेज़ों ने इसका क्षेत्रफल करीब एक-तिहाई एकड़ तय कर दिया था।
नील का उत्पादन कैसे होता था?
☞ नील के गाँव (जहाँ नील उगाई जाती थी) अक्सर फैक्ट्रियों के पास ही होते थे। और नील के पौधों को काटकर फैक्ट्री लाया जाता था और हौद (बड़े-बड़े कुंड) में डाला जाता था।
☛ नील बनाने के लिए 3 या 4 हौदों (वैटस) की ज़रूरत होती थी:
(i) पहला हौद (स्टीपर या किणवन हौद) :- इसमें नील की पत्तियों को गर्म पानी में कई घंटों तक रखा जाता था ताकि वे गल जाएँ।
(ii) दूसरा हौद (बीटर हौद) :- इस घोल को लगातार हिलाया जाता था। और जब हरा घोल धीरे-धीरे नीला होने लगता था, फिर उसमें चूने का पानी मिलाया जाता था। तब नील की गाढ़ी परत नीचे बैठ जाती थी।
(iii) तीसरा हौद (निथारन कुंड) :- नील की लुगदी (paste) को दूसरे कुंड में डालकर छाना जाता था। फिर इस लुगदी को सुखाया जाता और बेचने के लिए तैयार किया जाता था।
किसानों की परेशानी क्या थी?
(i) इससे उन्हें बहुत कम पैसे मिलते थे।
(ii) मेहनत बहुत ज़्यादा करनी पड़ती थी।
(iii) नील की जड़ें मिट्टी की सारी ताकत खींच लेती थीं, जिससे बाद में धान जैसी दूसरी फसलें उगाना मुश्किल हो जाता था।
(iv) बागान मालिक किसान से सबसे अच्छी ज़मीन पर नील उगवाते थे।
नील विद्रोह और उसके बाद
☞ मार्च 1859 में बंगाल में किसानों ने नील की खेती करने से मना कर दिया। किसानों ने बगावत की, फैक्ट्रियों पर हमला किया और बागान मालिकों का विरोध किया। वे गुमाश्ता (जो कर वसूलने आते थे) की पिटाई करने लगे। औरतें भी बर्तन लेकर लड़ाई में शामिल हो गईं। बहुत से जमींदार और गाँव के मुखिया भी किसानों के साथ थे, क्योंकि बागान मालिक इनकी ज़मीन पर जबरदस्ती कब्जा किया था।
⪼ 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज सरकार डर गई थी कि कहीं फिर से कोई बड़ा विद्रोह न हो जाए। जब 1859 में नील विद्रोह शुरू हुआ, तो सरकार डर गई और लेफ्टिनेंट गवर्नर ने उन इलाकों का दौरा किया।
➣ मजिस्ट्रेट ऐशले ईडन ने एक नोटिस निकाला कि किसान नील की खेती करने के लिए मजबूर नहीं किए जाएंगे। किसानों ने इस नोटिस को समझा कि रानी विक्टोरिया ने नील की खेती पर रोक लगा दी है। इसलिए उन्हें लगा कि सरकार भी उनके साथ है।
☛ जब विद्रोह की खबर फैली, तो कलकत्ता के पढ़े-लिखे लोग गाँवों में आए। और उन्होंने अख़बारों और लेखों में अंग्रेजों के अत्याचारों को लिखा। सरकार ने बग़ावत से घबराकर सेना भेजी बागान मालिकों की सुरक्षा के लिए। फिर एक नील आयोग बनाया गया।
☞ आयोग ने साफ़ कहा :- “नील की खेती किसानों के लिए नुकसानदेह है, बागान मालिकों ने ज़ोर-ज़बरदस्ती की है।”
⪼ इस विद्रोह के बाद नील की खेती बंद हो गई। और बागान मालिक अब बिहार चले गए। 1917 में एक किसान ने महात्मा गांधी को बिहार के चंपारण बुलाया, ताकि वे देखें कि नील किसान कितनी तकलीफ़ में हैं।
👉 गांधी जी के आने से चंपारण आंदोलन शुरू हुआ, जिसने नील बागान मालिकों के खिलाफ़ बड़ा संघर्ष छेड़ दिया।
कैरीबियाई द्वीपों में नील की खेती
☞ 18वीं सदी में फ़्रांस के बागान मालिकों ने कैरीबियाई द्वीपों में स्थित सेंट डॉमिंग्यू में नील और चीनी की खेती शुरू की थी। इन बागानों में अफ्रीका से लाए गए गुलामों से जबरन काम करवाया जाता था। लेकिन 1791 में अफ्रीकी गुलामों ने बगावत कर दी। और इन्होंने बागानों में आग लगा दी और अपने मालिकों को मार डाला।
➣ 1792 में फ्रांस की सरकार ने अपने सभी उपनिवेशों में दास प्रथा (गुलामी) को खत्म कर दिया। इस बगावत और गुलामी खत्म होने के कारण कैरीबियाई द्वीपों में नील की खेती पूरी तरह बंद हो गई।
☞ नील बनाने वाले मज़दूर 8 घंटे से ज़्यादा समय तक कमर तक भरे हुए नील के पानी में खड़े रहते थे। तथा उनके हाथ में एक पैडल होता था, जिससे वे हौद (बड़े घोल वाले कुंड) में घोल को हिलाते रहते थे।
प्रश्न 4. वाट किसे कहते है?
उत्तर– एक किणवन अथवा संग्रहण पात्र। वाट एक बड़ा टैंक या हौद होता है, जिसमें नील का घोल रखा जाता था। इसमें किणवन (सड़ाने) या नील जमा करने का काम होता था।
1875 का दक्कन विद्रोह
☛ महाराष्ट्र के पूना और अहमदनगर जिला में 1875 ईस्वी में किसानों ने रैयतवारी और महाजन के विरुद्ध आंदोलन किया। इस आंदोलन में किसान लगान की ऊंची दर के कारण परेशान थे। इस आंदोलन में किसानों ने महाजनों का बहिष्कार किया और उनके ब्याज की हिसाब किताब को जला दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि महाजन उन क्षेत्रों को छोड़कर भाग गए।
प्रश्न 5. नकदी फसल किसे कहते है?
उत्तर— वैसे फसल जिसे खेतों से सीधे व्यापारियों द्वारा खरीद लिया जाता है, उसे नकदी फसल कहते है। जैसे– गन्ना, नील, तंबाकू, अफीम
नील दर्पण
👉नील दर्पण एक प्रसिद्ध बंगाली नाटक है, जिसके लेखक दीनबंधु मित्र है। 1860 ईस्वी में यह पुस्तक बिना किसी लेखक के नाम से छपी थी, ताकि अंग्रेज के गुस्से को उन्हें झेलना ना पड़े। इस किताब में नील की खेती करने वाले किसानों की स्थिति को बताया गया है।
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दोस्तों उम्मीद करता हूं कि ऊपर दिए गए कक्षा 8वीं के इतिहास के पाठ 03 ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना (gramin kshetra per shasan chalana) का नोट्स और उसका प्रश्न को पढ़कर आपको कैसा लगा, कॉमेंट करके जरूर बताएं। धन्यवाद !
Wow 😲😳 nice sir